श्रीमद्भगवद्गीता : विश्व - कल्याण का एकमात्र मार्ग!
श्रीमद्भगवद्गीता जयंती पर विशेष : -
25 दिसंबर 2020// मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी // मोक्षदा एकादशी
ज्योत्स्ना मण्डल
महर्षि वेदव्यास ने सम्पूर्ण जगत को ‘महाभारत’ जैसा अप्रतिम ग्रन्थ दिया। इसमें अठारह अध्याय हैं, जिनको पर्व कहा जाता है। इनमें से एक पर्व है - भीष्म पर्व, श्रीमद्भगवद्गीता
इसी पर्व से लिया गया है। इसको
संक्षिप्त रूप से ‘गीता’ भी कहा जाता
है। गीता में कुल अठारह अध्याय हैं। अठारह अध्यायों में कुल श्लोकों की संख्या 700 है। इनमें से 574 श्रीकृष्ण के द्वारा, अर्जुन के द्वारा 85, संजय के द्वारा
40 और धृतराष्ट्र के द्वारा मात्र 01 श्लोक बोला गया है।
गीता को वेदों, उपनिषदों और
ब्रह्मसूत्र का सार यानि कि संक्षिप्त रूप कहा जाता है। अगर आप सभी वेदों को पढ़ने का समय
नहीं निकाल पा रहे, तो सिर्फ गीता पढ़ लेने से आपको सम्पूर्ण वेदों और उपनिषदों का ज्ञान
निचोड़ स्वरुप में मिल जाएगा।
श्रीमद्भगवद्गीता के अठारह अध्यायों के नाम एवं उनके संक्षिप्त परिचय इस प्रकार हैं :-
1. अर्जुनविषादयोग : - गीता का प्रथम अध्याय अर्जुनविषादयोग नाम से है। इस अध्याय में दोनों सेनाओं- पाण्डव और कौरव के प्रधान शूरवीरों की गणना, उनके सामर्थ्य और शंख ध्वनि का कथन, अर्जुन द्वारा सेना-निरीक्षण का प्रसंग और अपने ही बंधु-बांधवों को सामने खड़ा देखकर मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के दुर्बलता, स्नेह और शोकयुक्त वचन है। इसमें अर्जुन कहता है कि यदि मैं अपने ही बंधुओं को मारकर विजय भी प्राप्त कर लेता हूं तो यह मुझे सुख नहीं अपितु पश्चाताप ही देगी। इस प्रकार वह मोह ग्रस्त है और दुविधा जनक स्थिति में वह किंकर्तव्यविमूढ़ है।
2. सांख्ययोग : - इसमें श्री कृष्ण कहते हैं कि इस समय यह बातें करना उचित नहीं, क्योंकि अब तो तुम्हारे सामने युद्ध थोप ही दिया गया है। अब यदि तुम नहीं लड़ोगे तो मारे जाओगे। अर्जुन अपनों के मोहजाल में फंसा है और हर तरह से युद्ध को छोड़कर जाने की बात कहता है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि अब इस समय युद्ध से विमुख होना नपुंसकता और कायरता है। इसी चर्चा में श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्मा की अमरता के बारे में बताते हैं और कहते हैं कि आत्मा का कभी वध नहीं किया जा सकता। तू जिनके मारे जाने का शोक करने की बात कर रहा है, वह उनका शरीर है जिसे आज नहीं तो कल मर ही जाना है। इसीलिए जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा। इसी अध्याय में श्रीकृष्ण संख्ययोग और स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण का भी वर्णन करते हैं।
3. कर्मयोग :- इस अध्याय में कर्म की प्रधानता बतायी गयी है। ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार जीवन में अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण किया गया है। इसमें कर्मों का गंभीर विवेचन किया गया है। अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा की बातें कही गयी हैं। इस अध्याय में ही कर्म के सिद्धांत का निचोड़ लिखा हुआ है। हिन्दू धर्म ने गीता को अपना मूल ग्रन्थ माना है। इससे ही यह प्रकट होता है कि हिन्दू धर्म कर्मवादी धर्म है भाग्यवादी नहीं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, जो कि कार्य और कारण की एक श्रृंखला है।
4. ज्ञानकर्मसंन्यासयोग :- ‘कर्म से सिद्धि’- इस मूल भाव का इस अध्याय में सफलतापूर्वक निरूपण किया गया है। पर साथ ही इस बात पर भी बार-बार ज़ोर दिया गया है कि कर्म का संपादन फलासक्ति से विमुख होकर करना चाहिए। अन्यथा यही आसक्ति हमारी सिद्धि प्राप्ति में बाधक बन सकती है। इसमें ज्ञान, कर्म और संन्यास योग का वर्णन है। सगुण भगवान का प्रभाव और कर्मयोग का विषय, योगी महात्मा पुरुषों के आचरण और उनकी महिमा, फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन और ज्ञान की महिमा का वर्णन किया गया है।
यदा -यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।। अध्याय 4, श्लोक सं.-7 ।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ।। अध्याय- 4,श्लोक सं. -8 ।।
जैसे प्रभावशाली और जगप्रसिद्ध श्लोक इसी अध्याय से संकलित हैं।
5. कर्मसंन्यासयोग :- इस अध्याय में कर्म के साथ मन का सम्बन्ध तथा उसके शुद्ध संस्कारों की ओर ध्यान आकर्षित कराया गया है। अगर विशुद्ध मन से कर्म न किए जाएं तो कर्म का फल दोषयुक्त होता है। प्रत्येक कर्म में शुद्ध मन और समुचित संस्कारों का होना अनिवार्य है। इसके साथ ही सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय, सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा, ज्ञानयोग का विषय और भक्ति सहित ध्यानयोग का वर्णन का वर्णन किया गया है। उपरोक्त सभी योगों के वर्णन में अध्यात्म, ईश्वर, मोक्ष, आत्मा, धर्म नियम आदि का वर्णन है किसी भी प्रकार के युद्ध या युद्ध करने का नहीं।
6. आत्मसंयमयोग :- कर्म कोई भी करें, स्वयं पर नियंत्रण परम आवश्यक है। जैसा कि अध्याय के नाम से ही स्वत: सिद्ध होता है- ‘अपने ऊपर नियंत्रण’। इन्द्रियों का संयम ही सभी ज्ञान और कर्म का निचोड़ है। सुख - दुःख में समान स्थिति रख पाना ही सफल और पुरुषार्थी मनुष्य की निशानी है। इसमें कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ पुरुष के लक्षण, आत्म-उद्धार के लिए प्रेरणा और भगवत्प्राप्त पुरुष के लक्षण, विस्तार से ध्यान योग का वर्णन, मन के निग्रह का विषय, योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा का वर्णन किया गया है।
7. ज्ञानविज्ञानयोग : - विज्ञान शब्द वैदिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। विज्ञान अर्थात् विशिष्ट ज्ञान! सृष्टि के समस्त तत्वों का ज्ञान विज्ञान है, किन्तु उन नाना तत्वों से पार उतरकर एकत्व की ओर प्रस्थान कर पाना ही ज्ञान है। यहाँ पर विज्ञान की दृष्टि से परा और अपरा - प्रकृति के ये दो रूप बताये गए हैं। साथ ही, इस अध्याय में विज्ञान सहित ज्ञान का विषय दर्शाया गया है। साथ ही, बताया गया है कि संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से ईश्वर की व्यापकता है। इसके अतिरिक्त आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा, भगवान के प्रभाव और स्वरूप को न जानने वालों की निंदा और जानने वालों की महिमा का वर्णन किया गया है।
8. अक्षरब्रह्मयोग :- ‘अक्षर ब्रह्म परमं’ - अर्थात् परब्रह्म की संज्ञा अक्षर है। जीव और शरीर की संयुक्त रचना का नाम ही अध्यात्म है। उपनिषदों में जिस अक्षरविद्या का विस्तार हुआ है, गीता में उसी अक्षरविद्या का सार तत्व बताया गया है। इसमें ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और श्रीकृष्ण के द्वारा दिए गए उनके उत्तर हैं। भक्ति योग का विषय और शुक्ल एवं कृष्ण मार्ग के रहस्य का वर्णन है।
9. राजविद्याराजगुह्ययोग :- गुह्य अर्थात् गुप्त! यही गुह्य ज्ञान सबमें श्रेष्ठ है। इस अध्याय में प्रभावसहित ज्ञान का विषय है। इसमें जगत का ईश्वर से संबंध और प्रकृति तत्वों की चर्चा है। ईश्वर के आधिपत्य को समझ पाना ही परम विद्या है। यही राजविद्या है! इसे समझ लेनेवाला जीवन के भंवर से मुक्त हो जाता है। इस अध्याय में जगत की उत्पत्ति का विषय, भगवान का तिरस्कार करने वाले आसुरी प्रकृति वालों की निंदा और दैवी प्रकृति वालों के भगवद्भजन का प्रकार, सर्वात्म रूप से प्रभाव सहित भगवान के स्वरूप का वर्णन, सकाम और निष्काम उपासना का फल और निष्काम भगवद् भक्ति की महिमा का वर्णन है।
10. विभूतियोग :- प्राणिमात्र जिस - जिस पदार्थ में ईश्वर देखता है और पूजता है, वे सभी ईश्वर की विभूतियाँ हैं। इसलिए इस अध्याय में भगवान की विभूति और योगशक्ति का कथन तथा उनके जानने का फल, फल और प्रभाव सहित भक्तियोग का कथन, अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति तथा विभूति और योगशक्ति को कहने के लिए प्रार्थना, भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का वर्णन है। विभूति अर्थात सिद्धियां और शक्तियां! संसार में अनेक प्रकार की देवपूजा प्रचलित है, उनमें से जिस किसी की भी पूजा की जाती है, ईश्वर अपने आप को उसमें सम्मिलित पाते हैं। समन्वय का यही भाव इस अध्याय का सार है।
11. विश्वरूपदर्शनयोग :- इसमें विश्वरूप के दर्शन हेतु अर्जुन की प्रार्थना देखने को मिलती है। भगवान द्वारा अपने विश्व रूप का वर्णन किया जाता है। ईश्वर किस प्रकार सृष्टि के कण-कण में मौजूद हैं – इसका वर्णन यहाँ देखने को मिलता है। संजय द्वारा धृतराष्ट्र के प्रति विश्वरूप का वर्णन, अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना, भगवान द्वारा अपने प्रभाव का वर्णन और अर्जुन को युद्ध के लिए उत्साहित करना, भयभीत हुए अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति और चतुर्भुज रूप का दर्शन कराने के लिए प्रार्थना, भगवान द्वारा अपने विश्वरूप के दर्शन की महिमा का कथन तथा चतुर्भुज और सौम्य रूप का दिखाया जाना, बिना अनन्य भक्ति के चतुर्भुज रूप के दर्शन की दुर्लभता का और फलसहित अनन्य भक्ति का वर्णन है।
12. भक्तियोग : - शुद्ध मन से उत्तम विचार पूर्वक किए गए कार्य ही उत्तम हैं। सात्त्विक प्रवृत्ति ही ईश्वर की भक्ति कहलाती है। इस अध्याय में सत्, रज, तम- तीनों गुणों का विषय का विषद विवेचन है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को साकार और निराकार के उपासकों की उत्तमता का निर्णय और भगवत्प्राप्ति के उपाय का वर्णन बताया है। कैसे सामान्य से सामान्य प्राणी भी भगवद् प्राप्ति कर सकता है, इसका इसमें सम्यक् वर्णन है । इसमें भगवत्-प्राप्त पुरुषों के लक्षण भी बताए गए हैं।
13. क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग :- क्षेत्र अर्थात् खेत और क्षेत्रज्ञ अर्थात् उसको जाननेवाला! प्राणि मात्र का शरीर क्षेत्र है, और इस जीवात्मा को जाननेवाला क्षेत्रज्ञ है। आत्मा और परमात्मा का यही ज्ञान प्राणियों को श्रेष्ठ बनाता है। इसमें ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के विषय का वर्णन है और ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष के विषय का विषद वर्णन किया गया है। अर्थात स्थिति, ज्ञान, आत्मा, परमात्मा और पंच तत्वों का रहस्यमयी ज्ञान है।
14. गुणत्रयविभागयोग :- इस अध्याय में मूलत: सत्, रज, तम- तीनों गुणों के विषय का विषद विवेचन है। यही तीनों गुण प्राणी मात्र को उत्कृष्ट या निकृष्ट बना सकते हैं। सही गुण का चयन कर पाना जहाँ जीवात्मा को परमात्मा के करीब ले जाता है, वहीं गुणातीत बन पाने से जीवात्मा का परमात्मा से मिलन संभव है। इस अध्याय में ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत् की उत्पत्ति का वर्णन है। इसके अलावा भगवत्प्राप्ति का उपाय और गुणातीत पुरुष के लक्षण बताए गए हैं।
15. पुरुषोत्तमयोग :- यह अध्याय मानव जीवन को समझने के लिए अत्यन्त उपयोगी है । मानव का जीवन उल्टे वृक्ष की भांति है । हमारे सारे क्रिया कलाप का नियंत्रण जिस प्रकार हमारा दिमाग करता है, बिना दिमाग के जैसे हम कुछ भी नहीं कर सकते, ठीक उसी प्रकार, वृक्ष अपनी जड़ों के माध्यम से वे सारे कार्य करते हैं। इस प्रकार संसार उल्टे वृक्ष के समान है। इस अध्याय में संसार को उल्टे वृक्ष की तरह बताकर भगवत्प्राप्ति के उपाय बताए गए हैं। इसमें जीवात्मा के विषय का विषद विवेचन और प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप का वर्णन किया गया है और इसमें क्षर, अक्षर, पुरुषोत्तम के विषय के भी विषद वर्णन है।
16. दैवासुरसंपद्विभागयोग :- सृष्टि के आरम्भ से ही इसे दैवी और आसुरी – इन दो शक्तियों में बंटी हुई दिखायी गयी है । सृष्टि के इसी द्वि विरुद्ध रूप की विवेचना इस अध्याय में है। एक अच्छा, दूसरा बुरा! एक मर्त्य दूसरा अमर! एक अंधकार तो दूसरा प्रकाश!- जीवन इन्हीं दुविधाओं का नाम है। जो प्राणी इस भ्रम में न पड़कर सही मार्ग का चयन करता है, वह निश्चय ही, देवत्त्व को प्राप्त होता है। इस अध्याय में फलसहित दैवी और आसुरी व्यक्ति और संपदा का कथन किया गया है। आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का विर्णन भी मिलेगा। इसके अलावा शास्त्रविपरीत आचरणों को त्यागने और शास्त्रानुकूल आचरणों के लिए प्रेरणा दी गयी है।
17. श्रद्धात्रयविभागयोग :- इस अध्याय का संबंध सत, रज और तम- इन तीन गुणों से है। ये तीनो ही गुण हमारे जीवन को बहुत प्रभावित करते हैं । जिसमें जिस भी प्रकार के गुण का उद्भव होता है, उसका जीवन वैसा ही बन जाता है। इसमें श्रद्धा का और शास्त्रविपरीत घोर तप करने वालों के विषय का वर्णन है। इसमें आहार, यज्ञ, तप और दान के तीन – तीन भेद बताए गए हैं। ये सभी तीन प्रकार की श्रद्धा से ही संचालित होते हैं। इसके अलावा ॐ तत्सत् के प्रयोग की व्याख्या की गयी है।
18. मोक्षसंन्यासयोग :- गीता के इस अंतिम अध्याय में सम्पूर्ण उपदेशों का सार व उपसंहार है। इसमें जीवन के समस्त उद्देश्यों तथा उसके परिणामों का वर्णन है। प्राणी मात्र के जीवन में ज्ञान और कर्म तथा उसके फलों का विस्तार से वर्णन है। इसमें त्याग का विषद वर्णन, कर्मों के होने में सांख्यसिद्धांत का कथन, तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति और सुख के पृथक-पृथक भेद का वर्णन, फल सहित वर्ण धर्म के विषय का वर्णन, ज्ञाननिष्ठा का वर्णन, भक्ति सहित कर्मयोग का विवेचन और श्रीगीताजी के माहात्म्य का वर्णन है। अंत में श्रीकृष्ण कहते हैं कि प्रत्येक प्राणी के ह्रदय अर्थात् केंद्र में अखण्ड चैतन्य विराजमान है, जिसे ईश्वर कहते हैं। प्रत्येक प्राणी व्यावहारिक बनाकर अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करे और उसी ईश्वर पर अपना अखण्ड विश्वास बनाए रखे।
यही कारण है कि गीता को किसी भी धर्म और समुदाय से परे देखा जाता है। क्योंकि यह किसी भी धर्मं मात्र की विवेचना नहीं करती अपितु मानवमात्र के कल्याण का पथ प्रशस्त करती है। यह सृष्टि में व्याप्त चेतना की बात करती है। यह प्राणिमात्र में विद्यमान सर्वोत्तम स्वरुप की बात करती है। गीता हमें जीवन जीना सिखाती है। गीता हमें जीवन में विजयी होना तो सिखाती ही है इससे भी आगे जीवन से विजयी कैसे होना है – यह भी सिखाती है। नि:स्वार्थ भाव से केवल अपना कर्म करने को प्रेरित करती है। फलाफल से भयभीत न होकर सर्वोच्च शक्ति पर अपना अखण्ड विश्वास और निष्ठा बनाए रखना सिखाती है। सिर्फ गीता के बताए मार्गों पर चलकर ही सम्पूर्ण मानव जाति और विश्व का कल्याण संभव है। अत: हमें अपने जीवन में गीता का अध्ययन एवं इसके आदर्शों का पालन अवश्य करना चाहिए।
क्रोध पर नियंत्रण करना सिखाती है गीता!
दृष्टि है आवश्यक, परन्तु, जीवन में हर पल नया दृष्टिकोण सिखाती है गीता,
भले- बुरे में आत्ममंथन करना सिखाती है गीता!"
कल्याणमस्तु!
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